गम्भीर और षुद्ध साहित्य के दावेदारों ने साहित्य में अपने उच्च वर्णवादी रवैये के चलते पढ़े - लिखे सामान्य जन के बीच प्रचलित और लोकप्रिय साहित्य को लगभग नकार सा ही दिया। जन - सामान्य के बीच प्रचलित और बार -बार सुने जाते ऐसे सृजन को सृजन मानने से परहेज बरता उससे कितना साहित्यिक न्याय हुआ कहा नहीं जा सकता। कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि जो लोग उच्च साहित्यिक वर्णवाद की जातिवादी ठसक छोड़ जनता के बीच गए और उनकी काव्य रूचियों का संरक्षण और पोषण करते रहें साथ ही लिखित और पठित कविता को श्रव्य भी बनाते रहे, पता नहीं क्यों उनके प्रति अस्पृष्यता का भाव बरता गया। ऐसे चर्चित कवियों में यदि कुछेक नाम याद किए जाये ंतो बलवीर सिंह रंग’, मुकुट बिहारी ‘सरोज’ और गोपालदास ‘नीरज’ के नाम प्रमुख होंगे। कई अन्य भी होंगे जो इस वक्त याद नहीं आ पा रहे हैं। नीरज, निस्सन्देह इनमें सबसे बड़ा और प्रमुख नाम होगा। निजी तौर पर मैंने तो मुकुट बिहारी ‘सरोज’ की काव्य - प्रतिभा पर भी खूब कहा और लिखा। फिर उनकी काव्य कला और काव्य - प्रतिभा पर जितनी निगाह डाली जानी चाहिए वह तो अभी भी प्रतीक्षित है।